जलानेविवि के नारे, चिदंबरम एवं दलाल मीडिया
तिलक
01 मार्च 16
केंद्रीय सरकार में विभिन्न मंत्रालयों का दायित्व संभाल चुके प्रख्यात कानूनविद पी. चिदम्बरम, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगाए गए ''आजादी के नारे'' और लोकमान्य तिलक द्वारा घोषित ''स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है'' में कोई अंतर नहीं समझ पाये तो, माना यह जायेगा कि उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। देशभक्ति और देशद्रोह के संदर्भ में चल रही वर्तमान चर्चा के संदर्भ में जलानेविवि परिसर के नारे और लोकमान्य तिलक की हुंकार में जो साम्य पी. चिदम्बरम ने दर्शाने का कुप्रयास किया है, उसे परावर्तन मानसिकता की निकृष्टतम अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। देशद्रोह को परिभाषित करने वाली अलगाव और पृथकतावादी अभिव्यक्तियों को जो लोग तब तक देशद्रोह मानने के लिए तैयार नहीं हैं, जब तक कि उसके लिए सशस्त्र हिंसा न हो, चिदम्बरम की व्याख्या से संभवतः शायद ही कोई सहमत हों। ऐसी तुलना करने का साहस तो वह कांग्रेस पार्टी भी नहीं कर सकती, जिसके वे लम्बे समय से सदस्य हैं।
विघटनयुक्त अनास्था के विस्तार अभियान को कुतर्क के द्वारा, लोकतांत्रिक भारत में फैलाने का जो कुचक्र
चल रहा है, वह अब केवल कश्मीर घाटी या वनीय क्षेत्रों में शस्त्र उठाये नक्सलियों तक सीमित नहीं रह गया है। बल्कि बौद्धिक प्रगल्मता का प्रमाण बनकर ''बौद्धिकता'' का मापदंड निर्धारित करने वाला माना जा रहा है। देश के एक जाने−माने विधि विशेषज्ञ नरीमन ने कहा है कि जलानेविवि में लगाए गए आजादी के नारे या पाकिस्तान जिंदाबाद अथवा इंडिया गो बैक या फिर भारत के टुकड़े−टुकड़े करने की अभिव्यक्ति और संसद पर हमला करने वालों को, भगत सिंह जैसा शहीद बताने वाली अभिव्यक्ति देशद्रोह नहीं है, क्योंकि इसके लिए शस्त्र तो उठाया नहीं गया। यदि इन विद्वान लोगों की बात मान ली जाये, तो अब भारत माता की जय, वन्दे मातरम का उद्घोष, राष्ट्रध्वज के सम्मान का आग्रह ''देशद्रोह'' की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। इस प्रकार का आग्रह करने वालों को ''तानाशाह'' करार देने के साम्यवादी अभियान को, अब जो अपूर्व समर्थन मिल रहा है, वैसा सत्ताच्युत खिन्नता के समर्थन से ही संभव है।
विधि विशेषज्ञ या प्रबुद्ध होने का दावा करने वालों की वर्तमान समीक्षा के अनुसार तो, आज की स्थिति में यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत माता की जय, वन्देमातरम और तिरंगे का सम्मान राष्ट्रभक्ति का प्रतीक नहीं है और न ही पाकिस्तान जिन्दाबाद, भारत के खण्ड−खण्ड करने का आह्वान, आजादी के नारे या आतंकी आक्रान्ताओं को महात्मा बताना देशद्रोह है। कुछ मुट्ठीभर लोगों द्वारा भारतीय अस्मिता विरोधी अभियान पर कार्यवाही इतनी अखर गई कि चर्चा का मुद्दा मोड़कर विश्वविद्यालयों का भगवाकरण, अभिव्यक्ति की आजादी के छीनने और साम्राज्यवादी देशद्रोह के कानून की चर्चा के रूप में ढालकर विषयान्तर कर दिया गया।
वे लोग भी इस विषयान्तर में बढ़−चढ़कर सहभागीबन रहे हैं, जिन्होंने संसद हमले के दोषी अफजल को फांसी पर लटकाने के कारण, देशवासियों की प्रशंसा अर्जित की थी। अब जब उनके लिए अफजल ''गुरुजी'' हो गए हैं, तो यह स्पष्ट हो गया अफज़ल के वे समर्थक तब सत्ता में थे। यह वैसा ही है, जैसे कुछ वर्ष पूर्व दिग्विजय सिंह के लिए ओसामा बिन लादिन ''ओसामाजी'' हो गए थे, जिन्हें ऐसी पुस्तक का विमोचन करने में भी शर्म नहीं आई, जिसमें लिखा गया था कि मुंबई में 26/11 का हमला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कुचक्र था।
जिस शर्मनिरपेक्षता और कुतर्क के साथ देशद्रोह को अपराध की परिधि से बाहर निकालने के लिए विचारवान माने जाने वाले लोग मुखरित हो रहे हैं और मीडिया में टीआरपी के लोभ में चर्चा को उछाला जा रहा है, उससे एक बात बहुत स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी की सरकार को असफल कर जनमत की अपेक्षाओं पर कुठाराघात से ही जन विद्रोह हेतु जनता को उकसाया जा सकता है। इस हेतु नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए देश के जनमत की परिवर्तन की अपेक्षा पूरी होने के मार्ग में बाधा डालने के लिए, वे कुछ भी कर सकते हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपतियों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज को परिसर में प्रमुखता से फहराने के निर्णय पर भांति−भांति के प्रश्नचिन्ह न लगाये जाते।
अनावश्यक से लेकर अव्यवहारिक तक का तर्क देने के पीछे मानसिकता, क्या यह नहीं दर्शाती कि चाहे मोदी सरकार हो या कुलपतियों का सम्मेलन, जो भी निर्णय करे उसका अंधविरोध किया जायेगा। विश्वविद्यालयों के प्रांगण में तिरंगा फहराने के संकल्प पर की जा रही प्रतिक्रिया हास्यास्पद तो है ही, घातक भी है। शिक्षा संस्थाओं में राष्ट्रगान के आग्रह का विरोध तो पहले से ही हो रहा है और विश्वभर को पहली बार भारत की सबसे बड़ी देन योग, जिसे उसने स्वीकारा है, साम्प्रदायिक या सांप्रदायिक आचरण को थोपने के अभियान से, वर्गीय तनाव बढ़ाने का काम हो चुका है।
किसी घटना या अभिव्यक्ति से कितना विद्वेष बढ़ाया जा सकता है, इसके लिए घात लगाकर सन्नद्ध लोगों की सक्रियता बढ़ती जा रही है। भारतीय जनमानस को संवैधानिक आस्था, राष्ट्रीय प्रतिबद्धता तथा कानून की मान्यता से विपरीत दिशा में ढकेलने के इस प्रयास का जैसा उफान इस समय आया है, उससे देश पर छा रहा संकट किसी विदेशी हमले से घातक है। प्रगल्मता युक्त अभिव्यक्तियों को प्रमुखता देने में मुद्दे से भटककर मीडिया का बड़ा भाग पक्षपातपूर्ण प्रचार का शिकार हो गया है। उसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक छात्र बंदी होने में जन्मकुंडली तक को दर्शाने में पूरा बल लगा देने से संकोच नहीं है किन्तु केरल में किसी युवक की, उसके बूढ़े माता पिता के समक्ष, घर में घुसकर हत्या कर डालने का संज्ञान भी लेने की सुधि नहीं है। एक हत्या सुर्खियों में बनी रहती और दूसरी संज्ञानविहीन, ऐसा क्यों?
बिकाऊ नकारात्मक भांड मीडिया, विगत लगभग दो दशक से जिस भटकाव से स्वयं पीड़ित है तथा देश को भी भ्रमित करने में लगा है उसकी परिणति इस राष्ट्रद्रोह के अतिरिक्त कुछ अन्य हो भी क्या सकती थी।
असहिष्णुता पर क्या बोले अनुपम खेर
कोलकाता
मुंबई फि.उ. कलाकार अनुपम खेर ने कोलकाता में एक कार्यक्रम में दिया भाषण, जो सोशल मीडिया पर शैली बना कर रहा है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और 'असहिष्णुता बढ़ रही है' कहने वाले लोगों से प्रश्न करते इस भाषण में उन्होंने कहा है कि असहिष्णुता मात्र धनिकों लोगों और मोदी विरोधियों के लिए बढ़ी है।
अनुपम ने अपने भाषण में मोदी सरकार पर हो रहे प्रहारों तथा इस आरोप का भी उत्तर दिया, कि वह अपनी पत्नी के कारण से मोदी सरकार के पक्ष में बोलते हैं। खेर ने कहा कि उन्हें किरण खेर से विवाह किए 30 वर्ष हो गए हैं और उनके प्रति प्यार दर्शाने के लिए उन्हें मोदी के समर्थन में बोलने की कोई आवश्यकता नहीं है।
खेर ने कहा कि उन्हें बाध्य होकर राहुल गांधी का नाम लेना पड़ रहा है और आगे बोले कि जिस दिन राहुल गांधी मोदी के 10वें अंश के बराबर भी हो गए, उनका वोट राहुल को जाएगा। इतिहासकार मुकुल केसवान संचालित, असहिष्णुता के मामले पर हुई इस चर्चा में सेवानिवृत जज अशोक गांगुली, कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला, सुहेल सेठ, पत्रकार बरखा दत्त और कलाकारा काजोल ने भी भाग लिया। शनिवार रात कोलकाता में ABP समूह के समाचार पत्र टेलीग्राफ की चर्चा ‘द टेलिग्राफ नेशनल डिबेट’ में दिया गया भाषण, इस कार्यक्रम में चर्चा का मुद्दा ‘टॉलरेंस इज़ द न्यू इनटॉलरेंस’ था।
सुनिए, अनुपम ने क्या कहा-
https://www.youtube.com/watch?v=RwRnORhSqSU&list=PLaypC1Q7dot1CKuPtD5zjgZbwZcZ8jEFX&index=42
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